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दैनिक जागरण में "समाप्त होती संवेदनाएं"
दैनिक जागरण के नियमित स्तम्भ "फिर से" में
"समाप्त होती संवेदनाएं"
13 अप्रैल 2010
(पढने के लिए लेख की कतरन पर चटका लगाएं)
मेरे ब्लॉग "प्रेम रस" पर मूल लेख "आखिर संवेदनशीलता क्यों समाप्त हो रही है?" को पढने एवं टिपण्णी देने के लिए यहाँ चटका लगाएँ
सम्बंधित लेख:
एक बेहोश व्यक्ति की जीवन के लिए जद्दोजहद
ख़त्म हो गई इन्साफ की आस
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ग़ज़ल: प्यार की है फिर ज़रूरत दरमियाँ
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प्यार की है फिर ज़रूरत दरमियाँ हर तरफ हैं नफरतों की आँधियाँ नफरतों में बांटकर हमको यहाँ ख़ुद वो पाते जा रहे हैं कुर्सियाँ खुलके वो तो जी रहे हैं ज़िन्दग...
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