जनसत्ता में "बदलाव का सिरा"

पिछले तीन-चार महीनों में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में जिस गति से बढ़ोतरी दर्ज की गई है, उससे हैरानी होती है कि यह इसके बावजूद हो रहा है कि बलात्कार की कुछ घटनाओं को लेकर समूचा देश आंदोलित हुआ। समाज के स्तर पर जागरूकता बढ़ने के दावे किए गए, कानूनी स्तर पर कुछ ठोस पहलकदमी हुई। लेकिन बलात्कार की लगातार घटनाओं, यहां तक कि छोटी बच्चियों के साथ बर्बरता समूचे समाज के ढांचे पर सोचने को मजबूर करती है। मुझे लगता है कि बलात्कार जैसी घटनाओं के लिए पुरुषों के भीतर ‘पुरुष’ होने का दंभ भी सबसे बड़े कारणों में से एक है। लड़के को बचपन से ही यह अहसास कराया जाता है कि वह पुरुष होने के कारण महिलाओं से ‘खास’ है, उसका होना ज्यादा अहमियत रखता है। हालांकि अगर हम बचपन से बेटों को विशेष होने और लड़कियों को कमतर होने का अहसास कराना बंद कर दें तो स्थिति काफी हद तक बदल सकती है। क्योंकि इसी अहसास के साथ जब लड़के बड़े होते हैं, तो यह उनकी मानसिकता में गहरे पैठ जाता है। उसके बाद वे घर से लेकर बाहर, कहीं भी लड़कियों के साथ अभद्र और अशालीन व्यवहार करना मर्दानगी का पर्याय समझने लगते हैं। उनकी नजरों में लड़कियां ‘वस्तु’ भर होती हैं।

एक तरह से यही हमारी सामाजिक दृष्टि है और यह इसलिए होता है कि हम बचपन से बेटों और बेटियों में फर्क करते हैं। यह फर्क बेटियों को दोयम दरजा देता है और बेटों को प्राथमिक मानता है। समाज बेटियों को ‘सलीकेदार’ और बेटों को ‘दबंग’ बनते देखना चाहता है। बेटियां घर का काम करेंगी, बेटे बाहर का। बचपन से सिखाया जाता है कि खाना बनाना केवल बेटियों को सीखना चाहिए। सारे ‘संस्कार’ केवल बेटियों को सिखाए जाते हैं।

मसलन, कैसे चलना है, कैसे बैठना है, कैसे बोलना है आदि। यानी लड़कियों के लिए ‘सलीकेदार’ जिंदगी दरअसल उनकी गुलामी की जंजीर होती है। दूसरी ओर, अपने लड़कों को हम जैसी मानसिकता सौंपते हैं, उसके तहत क्या हम यह सोचते हैं कि जिन्हें हमने शुरू से ही निरंकुश बनाया है, वे बड़े होकर शिष्टाचार फैलाएंगे? यह समय इस खामखयाली से बाहर आने का है।

जब तक यह प्रण नहीं लिया जाएगा कि अपने घर में बेटों और बेटियों में कोई फर्क नहीं किया जाएगा, तब तक तस्वीर बदलना मुश्किल है। शुरू से ही बेटों में पुरुष होने के दंभ को नहीं पनपने दिया जाए, बल्कि एक-दूसरे का सम्मान करना सिखाने की जरूरत है। बचपन से ही सामाजिक जिम्मेदारियां न केवल समझाने, बल्कि उन्हें आचरण में लाने पर मेहनत की आवश्यकता है। समाज में हमें कैसे रहना चाहिए, यह सीखने-सिखाने की कोशिश हमारी रोजमर्रा की जिंदगी का एक अहम हिस्सा होना चाहिए।

अभिभावकों, खासकर पिता को यह जिम्मेदारी उठानी चाहिए कि घर के हर कामकाज में बेटी और बेटे, दोनों की बराबर भागीदारी सुनिश्चित हो। घर और बाहर के कामों के लिए दोनों में एक-सी निपुणता आज समय की मांग भी है। साथ ही बेटियों को शारीरिक तौर पर अपनी सुरक्षा खुद करने में सक्षम बनाने के लिए हर उपाय किए जाने चाहिए। यह नाममात्र के लिए नहीं, बल्कि प्राथमिक कक्षाओं से लेकर कॉलेज की पढ़ाई तक, शारीरिक अभ्यास के लिए समय निर्धारित होना चाहिए। बल्कि मेरा मानना है कि इसे एक अनिवार्य विषय घोषित करने की आवश्यकता है। जब तक पुरुषों को ताकतवर और महिलाओं को कमजोर समझा जाता रहेगा, तब ऐसी घटनाओं का समाप्त होना मुश्किल है। अगर हम बदलाव लाना चाहते हैं तो शुरुआत हमें अपने और अपनों से ही करनी होगी। वरना कहने-सुनने के लिए तो बहुत सारी बातें हैं!


- शाहनवाज़ सिद्दीकी


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जनसत्ता" में "आतंक का मज़हब"

दैनिक समाचार पत्र "जनसत्ता" में:

आतंक का मज़हब
1 मार्च 2013





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